भीमराव अंबेडकर: राजनेता या पूज्य पुरुष?
भारतीय लोकतंत्र में अनेक राजनेता हुए हैं—नेहरू, पटेल, सुभाष चंद्र बोस, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, गांधी—जिनकी नीतियों, विचारों और निर्णयों की आज भी खुलकर समीक्षा होती है। उनकी आलोचना भी होती है, तो प्रशंसा भी। यह किसी स्वस्थ लोकतंत्र का प्रमाण है कि हम अपने इतिहास और नेतृत्व पर विचार कर सकें, सवाल कर सकें।
परंतु जब बात डॉ. भीमराव अंबेडकर की होती है, तो परिस्थिति बदल जाती है। अंबेडकर की किसी भी आलोचना पर कुछ वर्ग इतने आक्रामक हो जाते हैं मानो किसी भगवान की निंदा हो गई हो। यह प्रवृत्ति खतरनाक है।
डॉ. अंबेडकर निःसंदेह एक प्रभावशाली नेता, विचारक और संविधान निर्माता रहे हैं। उन्होंने दलितों और वंचित वर्गों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई, जो सराहनीय है। परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि उनके हर विचार, हर निर्णय, हर कथन को आलोचना से परे रखा जाए।
वे कोई सिद्ध पुरुष या भगवान नहीं थे, बल्कि एक शुद्ध राजनेता थे, जिनकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं, वैचारिक सीमाएं और रणनीतियाँ थीं। जैसे अन्य राजनेताओं की आलोचना लोकतंत्र को मजबूत करती है, वैसे ही अंबेडकर की आलोचना भी यदि तर्क और तथ्य आधारित हो, तो उससे कोई समाज या वर्ग असुरक्षित नहीं होता।
लोकतंत्र में देवत्व नहीं चलता—यह विचारों की मंथन-भूमि है। और जो लोग अंबेडकर को आलोचना से ऊपर मानते हैं, वे न केवल उन्हें पूज्य बना रहे हैं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को भी आहत कर रहे हैं।
अंततः, इतिहास की सबसे बड़ी परीक्षा यही है कि उसमें हर पात्र को इंसान की दृष्टि से देखा जाए—ना कि ईश्वर की दृष्टि से।
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